Monday, December 12, 2011
Tuesday, November 1, 2011
अंधेरे में रोशनी की झलक
पिछले साल बिहार में आयी भयावह बाढ़ से प्रभावित लोगों की हालत देखकर चरखा के अध्यक्ष शंकर घोष ने फैसला किया कि अपनी एक टीम बिहार भेजी जाय ताकि उनकी समस्या का मुनासिब समाधान तलाश किया जाय। चरखा टीम में शामिल उर्दू फीचर सेवा के संपादक मोहम्मद अनीस उर रहमान खान और अंग्रेजी की संपादक सुजाता राघवन ने बिहार के दो जिले सीतामढ़ी और दरभंगा का दौरा किया और अन्तत: फैसले के तौर पर वहां पांच दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया गया। जिसमें प्रतियोगियों को पत्रकारिता प्रशिक्षण की व्यवस्था करायी गयी। |
![]() | सीतामढ़ी के राम नगरा गांव में भूतपूर्व मुखिया और गांव के लोगों से मिलने के बाद चरखा टीम से वहां के लोगों ने बताया कि पिछले वर्षों के मुकाबले इस साल बिहार में बाढ़ की समस्या पर सरकार ने हमारी अच्छी मदद की है। मगर हमारी असल परेशानी बाढ़ के बाद खेतीबारी के कामों में होती है। जिसके लिए बिहार सरकार नें ब्लॉक में दो बोरिंग का इंतजाम किया है और उसके चलानें के लिए ऑपरेटर की भी व्यवस्था है। मगर बोरिंग काम नही कर रही है। अगर यह बोरिंग काम करने लगे तो हमारा आधे से ज्यादा समस्या का समाधान हो जाय।
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बिहार में ऐसी भी जाति बसती है, जहां उसको डोम के नाम से जाना जाता है। इनकों लोग अछूत मानते हैं। अपने यहां शादी के मौके पर उनको घर से दूर ही रखा जाता है। मगर ताज्जुब की बात यह है कि उनके द्वारा बनाये गये सामान को अपनी शादी व्याह के मौके पर खूब इस्तेमाल करते हैं। यहां तक कि हिन्दु धर्म में मौत के बाद भी कुछ रश्मों रिवाज अदा करनें में इनका अहम रोल होता है। अफसोस की बात यह है कि सरकार भी उनकी तरफ कम ध्यान दे पाती है।
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![]() | ये कोई कश्मीर की वादी नही है बल्कि ये हालत है दरभंगा जिले के किरतपुर और घनश्यामपुर ब्लॉक की, जहां उसके निवासी दिन रात इसी तरह अपने आने जाने की समस्या हल करते हैं। पहले वे अपने घरों से अपनी सवारी लेकर आते हैं। जब नदी पार करना होता है तो नाव का सहारा लेना पड़ता है। नाव वालों की हर वक्त ड्यूटी लगी होती है और इन यात्रियों की मदद करते हैं। जो इन इलाके के निवासी है, वो इन्हे सालाना कुछ अनाज दे देते हैं। जब कि बाहर के लोंगों को एक तरफ से आने या जानें के लिए 10 रू देना पड़ता है। ये हाल तब है जब सख्त गर्मी का जमाना है। बरसात के बाद तो सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। |
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स्थानीय गैर सरकारी संस्था मिथिला ग्राम विकास परिषद के द्वारा दरभंगा के किरतपुर ब्लॉक के बोर नामक गांव में शिक्षा का सिलसिला जारी है। जहां सरकारी विभाग अपना काम पूरा नही कर पा रही है। ये संस्था अपना काम पूर्ण रूप से कर रही है। ये बाढ़ के वक्त भी लोगों के लिए समुदाय में खानें का इंतजाम करती है। उनकी जरूरत के अनुसार चींजे उन पीड़ितों तक पहुंचाया जाता है, जो कि एक सराहनीय कदम भी है। इस संस्था के संस्थापक नारायण जी चौधरी हैं। उन्हौनें अपनें कामों से चरखा टीम को काफी प्रभावित किया। चरखा टीम नें उनके साथ मिलकर एक कार्यशाला करनें का निर्णय लिया ताकि ये लोग अपनें मुद्वे और समस्याओं को कलम के जरिये जनमाध्यम तक पहुंचा सके।
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![]() | भारत में मेवे में गिनती किया जाने वाला मखाना, जिसको ताल मखाना के नाम से भी जाना जाता है। ये दरभंगा के इलाके के लिए एक तरह से पहचान है। यहां के किसानों का मानना है कि सिर्फ इसकी खेती से ही हम अपनी जिंदगी गुजर बसर कर सकते है। मगर बाढ़ और गर्मी में पानी की कमी की वजह से इस नेमत से भी हाथ धोना पड़ जाता है। अगर सरकार थोड़ा सा ध्यान दे देती तो इससे हमारी आय की समस्या का समाधान काफी हद तक हो सकता है।
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ये दरभंगा जिला का वह इलाका है, जहां कई नदियां एक साथ मिलती है और इसी के वजह से यहां हर साल बाढ़ आती है। इस बाढ़ से निजात दिलाने के लिए बिहार सरकार ने बांध बनवाये हैं। मगर यहां के निवासियों का कहना है कि इस बांध से हमें कोई फायदा नही है बल्कि ये संकट का कारण बन जाती है। हां इसके मरम्मत के वक्त हमें काम मिल जाता है। जिससे अपने बच्चों का पेट पाल लेते हैं। क्या करें घर के सारे पुरूष रोजी रोटी के तलाश में बाहर का रूख कर लेते है ताकि बाढ़ के दिनों में अपने बच्चों के लिए दो वक्त की रोटी का इंतजाम कर सके।
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![]() | बिहार के मशहूर उर्दू अखबार कॉमी तंज़ीम पटना के कार्यालय में अखबार के मुख्य संपादक एस एम अज़मल फरीद साहब से चरखा टीम दरभंगा और सीतामढ़ी की समस्याओं पर बात करते हुए - चरखा टीम ने बिहार की मीडिया से मुलाकात के दौरान उन समस्याओं को उजागर करने की कोशिश की ताकि उनकी समस्याओं को अधिकारियों तक मीडिया के माघ्यम से पहुंचाया जा सके। जिसके लिए वहां के मीडिया ने चरखा टीम से भरपूर मदद करने का वादा किया। चरखा ने बिहार के इन समस्याओं का समाधान ढ़ूंढ़ने और नवयुवको को बेजुवानों की जुवान बनाने की जरूरत महसूस की। इसी मकसद को हासिल करने के लिए चरखा ने लेखन शैली को बढ़ावा देने के लिए दरभंगा में एक कार्यशाला का आयोजन 14 जुलाई से 18 जुलाई 2009 को किया। ताकि सीतामढ़ी और दरभंगा के निवासी अपनी समस्याओं को अधिकारियों तक पहुंचा सके। |
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कार्यशाला के दौरान प्रतियोगियों को तीसरे दिन चरखा टीम की अगुवाई में क्षेत्र दौरा के लिए बाढ़ प्रभावित गांवों का दौरा कराया गया। जहां स्थानीय निवासियों ने खुलकर अपनी समस्याओं को सामने रखा। जिसको प्रतियोगियों ने आंकलन कर स्थानीय अखबार में प्रकाशित करवाया।
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![]() | इस यात्रा के दौरान दरभंगा से केवल 7 किलोमीटर दूर तारालाही ब्लॉक के धनैला गांव के लोगों ने मांग किया कि हमारे गांव वालों के लिए एक पुल का इंतजाम किया जाय क्योंकि पुल नही होने की वजह से हमलोग बाढ़ के पानी से परेशान रहते हैं। हम अपनी सरकार से केवल एक पुल और गांव से बाहर शहर की तरफ जाने के लिए एक सड़क की मांग करते हैं ताकि मेहनत मजदूरी कर अपने बच्चों का पेट पाल सके। हमे बाढ़ के दौरान पैकेट देने से कहीं बेहतर है कि एक पुल की व्यवस्था कर दे।
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यात्रा के वापसी पर कार्यशाला के दौरान चरखा टीम की अगुवाई में प्रतियोगियों ने दीवार अखबार बनाकर स्थानीय समस्या पर बातचीत की। इसका मकसद स्थानीय आवाज को अधिकारियों तक पहुंचाना है। जब कि दीवार अखबार के जरिये स्थानीय लोगों को सरकारी सहायता और उसकी जानकारी देना है। | ![]() |
![]() | कार्यशाला के दौरान स्थानीय प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॅानिक मीडिया से प्रतियोगियों को रूबरू कराया गया। जिसमें प्रतियोगी और मीडिया के दरम्यान दूरी खत्म करने की कोशिश की गई। ये कोशिश काफी हद तक कामयाब रही क्योंकि स्थानीय मीडिया ने खास कर उर्दू अखबार ने प्रतियोगियों के द्वारा लिखे गये लेख को जगह भी दी। जिससे नये कलमकारों की हौसला अफजाई हुई। |
कार्यशाला के आखिरी दिन मुख्य अतिथि के रूप में मशहूर पत्रकार और मौलाना आजाद नेशनल उर्दू विश्व विद्यालय के रीजनल डायरेक्टर श्री इमाम आजम साहब ने सिरकत की। उन्हौने चरखा द्वारा चलाये जा रहे इस कार्यशाला की तारीफ करते हुए कहा कि चरखा एक ऐसी संस्था है, जो समाज में पिछड़े लोगों की चिंता करती है। जिसके लिए चरखा के लोगों को मुबारकबाद देता हूं और साथ ही शुक्रिया अदा करता हूं कि चरखा ने दरभंगा को इस कार्यशाला के लिए चुना। कार्यक्रम के आखिर में मुख्य अतिथि के हाथों प्रतियोगियों को एक सर्टिफिकेट भी दिया गया। | ![]() |
नई व्यवस्था और नये समाज का निर्माण
http://www.charkha.org/newsletter/datanov09/hindicontent02nov09.html
आज नये समाज का निर्माण करना बेशक एक नई चुनौती बन गई है। व्यवस्थाओं के अनुरूप सामाजिक परिवेश की कल्पना करना भी मुमकिन नही लगता है और प्राकृतिक आपदाओं के बाद तो हमारे समाज का स्वरूप ही बदल जाता है। तब हमारी कोशिश ऐसे समाज के निर्माण करने की होती है जहां मूलभूत सुविधाओं से लेकर उनके मौलिक अधिकार तक का हनन होता है। ऐसी सुविधाएं सरकार देती तो है परन्तु उनके सूचनाओं को संचारित नही करती है। यहीं से उनके जीवन की व्यथा शुरू होती है।
चरखा डेवलपमेंट कम्युनिकेशन नेटवर्क ने बिहार के दरभंगा में एक कार्यशाला का आयोजन 14 जुलाई से 18 जुलाई 09 को बाढ़ पीड़ित क्षेत्र में आयोजित की। इस कार्यशाला में दरभंगा और सीतामढ़ी के लोगों ने भाग लिया। इस कार्यशाला का उद्वेश्य बाढ़ पीड़ित क्षेत्रों में संचार माध्यम को बढ़ावा देना था ताकि वे अपने मुद्वों को अखबार के जरिये जनमानस और सरकार तक पहुंचा सके।
![]() | बाढ़ पीड़ित क्षेत्रों के विशेषज्ञों में से एक श्री एम वी वर्मा से विचार विमर्श के दौरान वहां के जमीनी हकीकतों के बारे में जानकारी प्राप्त हुई। उसके अनुसार जमीन और पानी वहां की सबसे बड़ी समस्या है। चरखा के कार्यों को सराहनीय बताते हुए कहा कि ऐसे कार्य उनके जीवन को बदलने में मददगार साबित होगी। |
नेपाल से सटा हुआ बसविट्टा इलाका सीतामढ़ी के सोनवर्षा ब्लॉक में स्थित है। इसकी सबसे बड़ी परेशानी बाढ़ के समय होती है। जब नेपाल से धीरे धीरे पानी छोड़ा जाता है। तराई क्षेत्र होने की वजह से कुछ दिनों तक पानी का जलजमाव भी रहता है। | ![]() |
![]() | एम आर एम महाविद्यालय के छात्रों से मिलने पर सामाजिक परिवेश के बारे में बात की गई। मुद्वे और समस्याओं से जूझ रहे ग्रामीणों के लिए जमीनी मुद्वे क्या हो सकते हैं। इस बारे में चर्चा की गई और वहां के प्राध्यापक विद्यानाथ झा ने एक कार्यशाला का आयोजन अपने महाविद्यालय में करने का आग्रह भी किया। |
सीतामढ़ी में स्थित महिला समाख्या केन्द्र मुख्य रूप से महिला सशाक्तिकरण, शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए काम करती है। यह केन्द्र चरखा द्वारा आयोजित कार्यशाला में भाग लेकर उनमें और बेहतर करने की इच्छा जाहिर की। | ![]() |
![]() | दरभंगा से 25 किलोमीटर दूर केवटी ब्लॉक में यह पैगम्बरपुर गांव है जहां एक छोटा सा सिलाई केन्द्र एक संस्था के सहयोग से चलाया जा रहा है। यह सिलाई केन्द्र गांव के ही निर्धन महिलाओं और युवतियों के लिए है जो आगे चलकर अपनी रोजी रोटी के लिए अपने पांव पर खुद खड़ी हो सके। |
पैगम्बरपुर गांव में ही कुछ युवतियों से बात करने के पश्चात अपने भाव व्यक्त किए। उनमें से सारी लड़कियां 8वीं पास है क्योंकि गरीबी और पैसा न होने की वजह से वे आगे की पढ़ाई नही कर पाती है। अखबार के महत्तव को समझने के बाद उन्हौने आगे पढ़ने की इच्छा जतायी। | ![]() |
![]() | सीतामढ़ी के कुछ ग्रामीण लेखकों से मिलने के बाद सामाजिक परिप्रेक्ष्य में चर्चा की गई। सामाजिक मुद्वे और समस्याओं को समझने के बाद लेखन पर जोर दिया गया ताकि ग्रामीण समस्याओं को सभी लोग समझ सके। |
सीतामढ़ी से 15 किलोमीटर दूर रामपुर गंगोली में संजीव कुमार के द्वारा एक वॉल पेपर की शुरूआत की गई। इसके साथ साथ एक रूरल रिसोर्स सेन्टर स्थापित करने की मांग की गई जिससे कि हर तरह की जानकारी लोगों तक पहुंचाने का काम कर सके। | ![]() |
![]() | जापान से आये प्रतिनिधि ताकाहीरो नीरो ने सीतामढ़ी और दरभंगा का जायजा लिया। बाढ़ पीड़ित क्षेत्रों में उनके जीवनशैली को देखने और परखने के बाद उन्हौन इनके जज्बों को सलाम किया। |
कश्मीरी समाज में बढ़ता आत्मविश्वास
http://www.charkha.org/newsletter/datanov09/hindicontent03nov09.html
आन्तरिक सुरक्षा हो या समाज की नई परिकल्पना दोनो ही परिप्रेक्ष्य में कश्मीर हमेशा से तत्परता दिखाई है। कश्मीरी समाज में ऐसी कल्पनाएं की जा सकती है जहां सीखने की चाहत दिखायी देती हो। समाज का दर्द न तो सरकार समझने की कोशिश करती है और न ही हमारे देश के चौथे स्तंभ कहे जाने वाले मीडिया दोनों ही ज्वलंत मुद्वों को प्रमुखता देते हैं। समाज में हो रहे बदलावों और समस्याओं को दरकिनार करने की कोशिश करते हैं।
बदलाव परिर्त्तन का नियम माना जाता है। बदलाव से ही जीवन के नये स्त्रोत का उजागर होता है। नई राह के लिये उन्हौने चरखा कार्यशाला में शामिल होने की इच्छा जाहिर की।
![]() | कुपवाड़ा से 12 किलोमीटर दूर कुनन गांव है जहां हेल्प फाउंडेशन की मदद से उनके रोजमर्रा के जीवन में बदलाव आया है। नूरजान से मुलाकात के दौरान उन्हौने अपने बारे में बताया। फाउंडेशन के द्वारा उन्हे एक गाय दी गई है जिसकी कमाई से उनके बच्चे अब स्कूल जाने लगे हैं। |
उसी गांव की एक बुजुर्ग महिला, जिनका नाम शाह माल है उन्हौन कश्मीरी भाषा में बात करने के दौरान बताया कि हमें औरो की तरह मदद नही मिल रही है और हम चाहते है कि आप मेरी बातों को वहां तक पहुंचा दे। | ![]() |
![]() | हेल्प फांउडेशन के चाइल्ड प्रोटेक्शन कमिटि के सदस्य अब्दुल अहद दर से मिलने पर मैने अपने कार्यशाला में महिलाओं की भागीदारी करने को कहा तो उन्हौने महिलाओं के बारे में आपबीति बतायी। अन्तत: वे हमारे काम को सराहते हुए मदद करने को भी तैयार हुए। |
इस फाउंडेशन की मदद से वहां की काफी लड़कियों को फायदा हुआ है। ये सारी लड़कियां 10वीं करने के बाद सेब के बगीचे में पत्ते बिनने का काम करती थी। अब इनके सहयोग से ये सिलाई और कढ़ाई का काफी काम सीख चुकी है। ताकि वे आगे काम कर सके। | ![]() |
![]() | इस सिलाई सेंटर में लगभग 20 लड़कियों को सिलाई का काम निशुल्क में सिखाया जाता है और उनसे किसी भी प्रकार का शुल्क नही लिया जाता है। तथा वे उनके लिए काम ढ़ूढ़ते हैं ताकि वे अपने काम में परिपक्व हो सके। वे मुख्य रूप से स्कूल के ड्रेस, फिरन और दूसरे अन्य वस्त्र भी सिलते हैं। |
हेल्प फांउडेशन के अध्यापकों की टीम जो अपने दो स्कूल चला रहे हैं और लोगों के लिए शिक्षा देते हैं और शिक्षा का प्रसार करते हैं। चरखा की टीम उनसे मिलने के बाद अपने सदस्यों को कार्यशाला में भाग लेने का आग्रह किया ताकि वे अपने क्षेत्र के बारे में लिख सके। | ![]() |
![]() | कुपवाड़ा से 25 किलोमीटर दूर हंदवाड़ा एक छोटा सा शहर है। यह ट्रस्ट जम्मू एण्ड कश्मीर यतीम ट्रस्ट के द्वारा चलाया जा रहा है। इस यूनिट का नाम गुलिस्ताने बनात है। इस यूनिट की देखभाल जी ए कुमार करते हैं। इस यूनिट में 30 लड़कियां है जो यतीम हैं और इसकी तालीम विभिन्न स्कूलों में होती है। यह तालीम स्कूल के सहयोग से ही सम्भव हो सका है जो कोई भी शुल्क नही लेते हैं। कुमार बतातें हैं कि अभी सिर्फ 8वीं तक की शिक्षा हम देते हैं। आगे की पढ़ाई के लिए मेरे पास कोई साधन नही है। |
उन्हे देखने के बाद ऐसा लगा कि वे अपने घरों में ही रह रहे हैं और वहां एकदम खुशनुमा माहौल भी देखने को मिला। उनके लिए सारी सुख सुविधाओं का ख्याल रखा जाता है। उनके विचार भी औरों से मिलते जुलते थे। कुमार को वेलोग अब्बा कहकर बुलाते हैं। | ![]() |
![]() | 17 नवम्बर से 19 नवम्बर 09 तक कुपवाड़ा शहर में कार्यशाला का आयोजन किया गया। जिसमें शरहदी इलाके के 30 लोगों ने हिस्सा लिया। कार्यशाला में ऐसे तमाम मुद्वों को बताने की कोशिश की गई जो उनके जीवन को प्रभावित करता हो। कार्यशाला में दीवार अखबार के बारे में भी बताया गया। |
रूरल रिसोर्स सेन्टर (हेल्प फांउडेशन का कार्यालय) खोलने का निर्णय लिया गया है। इस सेंटर का उपयोग ग्रामीणों को दिये जा रहे योजनाओं और कुछ महत्तवपूर्ण सूचनाओं के लिए होगा ताकि इसे यह सूचना प्राप्त करने के लिए सरकारी दफ्तर न जाना पड़े। | ![]() |
![]() | मुख्य शिक्षा अधिकारी से मिलने पर उन्हौने अपनी योजनाओं के बारे में बताया। बातचीत के दौरान उन्हौने हमारी पहल की सराहनीय करते हुए कहा कि ये सारी योजनाएं गांवों तक नहीं पहुंच पाते हैं। हम आपके सेंटर के जरिये ऐसी योजनाओं को गांवों तक जरूर पहुंचाने की कोशिश करेंगें। |
Monday, October 31, 2011
यू.एन.एफ.पी.ए. लाड़ली मीडिया पुरस्कार वितरित
http://www.mpinfo.org/mpinfonew/newsdetails.aspx?newsid=100414N20&flag1=0
महिला सशक्तीकरण में मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण - मुख्यमंत्री श्री चौहान |
यू.एन.एफ.पी.ए. लाड़ली मीडिया पुरस्कार वितरित |
Bhopal:Wednesday, April 14, 2010: Updated22:39IST |
मुख्यमंत्री श्री शिवराजसिंह चौहान ने कहा है कि महिलाओं और बालिकाओं से जुड़े मामलों में मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण है। मीडिया के सतत प्रयत्नशील रहने से महिला सशक्तीकरण के अभियान को और गति मिलेगी। विज्ञापनों में महिलाओं का सम्मान कायम रहे और वे लैंगिक भेदभाव की शिकार न हों इसके लिये निरंतर सजग रहने की आवश्यकता है। मुख्यमंत्री श्री चौहान आज यहां समन्वय भवन में महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर उत्कृष्ट मीडिया कव्हरेज के लिये उत्तरी क्षेत्र के 10 राज्यों के 22 मीडिया कर्मियों को वर्ष-2009-10 के लाड़ली मीडिया पुरस्कार प्रदान कर रहे थे। ये पुरस्कार युनाइटेड नेशन्स पॉप्युलेशन फंड (यू.एन.एफ.पी.ए.) द्वारा दिये जाते हैं। मुख्यमंत्री श्री चौहान ने यू.एन.एफ.पी.ए. लाड़ली मीडिया पुरस्कारों से पुरस्कृत पत्रकारों को बधाई देते हुए कहा कि इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया द्वारा भारतीय मूल्यों को कायम रखने के लिये सराहनीय भूमिका निभाई जा रही है। महिलाओं का चित्रण भी अखबारों से लेकर विज्ञापन होर्डिंग्स और खेल मैदानों तक गरिमापूर्ण हो, इस दिशा में सतत सजग रहने की जरूरत है। मुख्यमंत्री श्री चौहान ने कहा कि मध्यप्रदेश में महिलाओं को स्थानीय निकायों में 50 प्रतिशत स्थानों पर आरक्षण की व्यवस्था से उनके सम्मान में वृद्धि हुई है। शिक्षकों के पदों पर नियुक्ति में भी उन्हें आरक्षण दिया गया। मध्यप्रदेश में महिलाओं को सुरक्षा और सम्मान के साथ रोजगार के अवसर देने पर निरंतर ध्यान दिया जायेगा। भोपाल की महापौर श्रीमती कृष्णा गौर ने कहा कि मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री श्री चौहान ने लाड़ली लक्ष्मी योजना, कन्यादान योजना, महिला श्रमिकों को प्रसूति अवकाश, संस्थागत प्रसव पर प्रोत्साहन, शिक्षा के लिये अनेक सुविधाएं देकर महिला कल्याण की दिशा में अभूतपूर्व कदम उठाये हैं। मीडिया की सकारात्मक भूमिका से महिलाओं के प्रति समाज का दृष्टिकोण पहले से बेहतर हुआ है। समारोह को यू.एन.एफ.पी.ए. के भारत स्थित प्रतिनिधि श्री नेसिम टुमकाया, कार्यक्रम निदेशक डॉ. ए.एल. शारदा और श्री बॉबी सिस्टा ने भी सम्बोधित किया। प्रारंभ में नृत्यांगना डॉ. लता सिंह मुंशी और उनकी शिष्याओं ने 'स्त्री तत्व' नृत्य कार्यक्रम प्रस्तुत किया। सरोकार संस्था की ओर से श्रीमती कुमुद सिंह के निर्देशन में झुग्गी बस्तियों की कन्याओं ने गीत प्रस्तुत किया। कार्यक्रम का संचालन श्री इरफान सौरभ ने किया। इस अवसर पर मुख्यमंत्री श्री चौहान और महापौर श्रीमती कृष्णा गौर ने मीडिया कर्मियों को पुरस्कृत किया। पुरस्कृतों में हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू, पंजाबी भाषाओं के मध्यप्रदेश सहित पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तरांचल, छत्तीसगढ़, दिल्ली और चंडीगढ़ राज्यों के मीडियाकर्मी शामिल हैं। पुरस्कृतों में सर्वश्री श्री राजेश माली और श्री शुरैह नियाजी, सुश्री गीताश्री, मो. अनीसुर्रहमान खान, सुश्री नुसरत आरा, श्री जगतार सिंह भुल्लर, सुश्री अन्नपूर्णा झा, सुश्री गीतांजलि गायत्री, सुश्री नेहा दीक्षित, श्री सुखवीर सिवाच, सुश्री दीपिका ठस्सू, सुश्री पारिजात वंदोपाध्याय, सुश्री ऋचा अनिरूद्ध, सुश्री अर्चना शर्मा, श्री हेमंत पाणिग्रही, सुश्री दिव्या शाह, सुश्री सुतापा देब, सुश्री अनन्या चक्रवर्ती, सुश्री स्मृति जोशी, सुश्री रेणुका नैय्यर, सुश्री विभारानी, सुश्री अफसाना राशिद, सुश्री रत्ना भराली तालुकदार, सुश्री शैलजा चन्द्रा, सुश्री शोमा चटर्जी शामिल हैं। पुरस्कार कार्यक्रम का संचालन यू.एन.एफ.पी.ए. की क्षेत्रीय समन्वयक सुश्री मीनू तलवार ने किया। इस अवसर पर पुरस्कारों के गठित निर्णायक समिति के सदस्य दैनिक भास्कर के सम्पादक श्री अभिलाष खांडेकर और श्रीमती निर्मला बुच उपस्थित थे। |
अशोक मनवानी |
Thursday, October 27, 2011
Where students yearn to learn, and teachers teach
A small village school in Kashmir is an example of a beautiful relationship, but is marred by poor infrastructure, writes Mohd Anis ur Rahman Khan
Salamat Wadi is a quaint little village tucked away in Karalpura block in the border district of Kupwara in Kashmir. I chanced upon this in my travels in this region. The place is in focus for strategic reasons, but very little is known about how people live, what their problems are and what their aspirations are.
It was a lovely morning, the snow-covered mountains surrounded the village, the birch trees reflected the gentle sunshine. As I walked around, strains of a poem, which I had heard in my childhood, wafted through the morning breeze. It seemed to me that about a hundred children were reciting the words already etched in my heart and mind. “Lab pe aati hai dua ban ke tamanna meri… zindagi shamma ki soorat ho khudaya meri… Zindagi ho meri parwane ki soorat yaa rab… Ilm ki shamma se ho mujhko mohabbat yaa rab…”
The words of gifted poet Allama Iqbal probably resound in the hearts of all Indians and do not require translation. Still, for the few uninitiated, they evoke a sense of a great desire for learning, for spreading the light of knowledge. Specifically translated it would read thus: “Let my life be like a light, like a being which is attracted to light… I have this great love for learning, my lord…”
Then I came across the group of children. The kids were queued up according to their ages or class, I presumed. I realised that I had just come walking up to a school. I learnt that children here are an enthused bunch. They would land up way before school officially opens and sit around the compound, on rocks and stones, waiting for their teachers to begin the day. What a far cry from students in metros and cities! I do not recall seeing that longing, that energy to go to school for learning in the cities. Even without fully understanding the import of Iqbal’s poem, which they recite, every morning, they were living its essence.
What struck me was the moment, its appropriateness. Iqbal, who lived in the beginning of this century hailed from Kashmir, and today a new generation is not just reciting his poems but also probably ingraining the meaning into their young lives.
After the prayers, the teachers, armed with blackboards, walked across the open ground, which was essentially just rough land surrounding the school building. By no stretch of imagination, can it be called a playground. Placing these blackboards against the walls of nearby houses, students were divided according to their class, and studies began. I quizzed on why they continued to stand in the open despite a building that I could see at a distance. A stream was flowing nearby, its waters making a gurgling sound. Quite delightful, I thought. What a novel way of conducting classes, in the lap of nature. Except that, in this school run by the Sarva Shiksha Abhiyan, this was not a matter of choice but circumstance.
I realised that both the rooms of the school building were in effect unusable for teaching. One was used as an office while the other was stocked with supplies and items required for preparing the mandatory mid-day meal. I noticed that children had got jute mats or boriya from their homes. They fell into a familiar routine, placing their footwear beneath it and squatting on these mats. Somehow, the words of Iqbal’s poem again came to my mind. “Ho mere dam se yoonhi mere watan ki zeenat… jis tarah phool se hoti hai chaman ki zeenat.” (May my life bring beauty to my land…. as flowers make the garden beautiful.)
Sadly, this yearning by the students to study and the commitment of the teachers to teach, was not matched by the infrastructure and other support by the Government. Why on earth should students anywhere in this country study in the open, never mind the poetic appeal? Why cannot school buildings, especially under the much-touted SSA, be adequately constructed to cater to the needs of the students? And, of course, why should not there be space for administrative and other official work as well? I learnt that the land for building the school had been donated by Muhammad Gulzar Shah a villager, who himself is not well-off. He lives in a small, ramshackle building with his five children.
What moved Gulzar Shah to donate this piece of land, when he himself is not well-off? Obviously, it is his spirit which wants to see the children of his village being educated, the desire to contribute to the Ilm ki shamma, or the light of learning, so evocative in Iqbal’s poem. It was his form of service for the community and indeed the cause of education in this little known block of the border district.
The same spirit reflects in the young sarpanch, Mohd Basheer Ahmad Mir, only 25 years old. He is committed to the welfare of the region, which he rues is still backward. He is proud of Gulzar Shah and his generous move towards school education. The move has drawn the attention of the local MLA, Mir Saifullah who has promised to donate Rs 2 lakh for renovating the school.
Change is happening gradually, driven essentially by the efforts of the local community and, of course, the redoubtable spirit of the young students. The sarpanch recalls how the school came up. “In 1996, the foundation of a primary school was laid in our village. Before that the students used to walk two kilometers to another school. From 80 students, the numbers have been increasing. The school was upgraded to an upper primary one in 2002. Again, for a third time, it was upgraded to a middle school.” Still he feels the response from the Government has been sorely inadequate. “Today, about 200 children come to this school, yet it continues with only the two rooms that had been constructed initially,” he rues.
Friday, October 21, 2011
http://www.charkha.org/html/sghose_awardinformation2011.html
SANJOY GHOSE LADAKH WOMEN WRITERS’ AWARD
2011-12
Charkha Development Communication Network announces the Ladakh Women Writers’ Awards to invite writings on the social aspects of Ladakh’s heritage: its cultural, historical and natural wealth, as viewed by the people of Ladakh themselves
Supported by Unniti Foundation - India
ABOUT THE AWARDS
There are three Awards, carrying a Citation and cash prize of Rs 5000/- each. The three Awardees may be taken through a mentoring process that includes guidance by a senior writer, likely to be based in the same location as the applicant; and ongoing editorial inputs by Charkha.
SUBJECT
The Awards encourage women from Ladakh to interact with their people and write about their views on the changes sweeping through Leh and Kargil that are impacting the way of life of the people; and their vision for Ladakh in the coming years.
Themes may cover, among others:
Ø Change in the culture / livelihood / education / environment of Leh / Kargil;
Ø Role of the people of Ladakh in managing this change to protect the traditional wisdom and environmental heritage of the Ladakh region;
Ø Successes achieved by individuals / groups in improving the quality of life of the people of Leh / Kargil by embracing the contemporary without foregoing the traditional
AWARD REQUIREMENTS
Each Awardee is expected to write six articles on their chosen theme in their preferred language: English, Hindi, Urdu or Ladakhi. The writings, of 700-1200 word length each, must be accompanied by photographs. The six writings must be completed by June 2012.
Charkha retains the right to use and reproduce the Award articles as Charkha Features, acknowledging the writer. The writings of the Awardees will be sent for publication to national and state-level newspapers and magazines and in websites, by Charkha’s Feature Service in English, Hindi and Urdu.
ELIGIBILITY CRITERION
§ The Award is open to women from Leh and Kargil above the age of 18 years
§ Writers, teachers, tourist guides, social activists, professionals or students, living in Ladakh or outside can apply
Awardees of previous Ladakh Women Writers’ Awards are not eligible.
HOW TO APPLY
Please download and fill the Application Form from our website’s home page or at the link:
http://www.charkha.org/html/sghose_awardinformation2011.html
The following attachments are to be sent with the Application Form:
1. A note on the theme on which you wish to write, in 250 to 500 words
2. Two samples of your writings (whether published or not) on any social or development issues
3. Curriculum Vitae
4. Two References (not related to the applicant) with their contact details
5. Two photographs of yourself
Please send the completed Application Form and attachments by email or post to:
Mr.Shankar Ghose, President
Charkha Development Communication Network
D-1947 Palam Vihar
Gurgaon-122017
Email: charkha@bol.net.in; chetna@charkha.org; ameshack@gmail.com
LAST DATE
The completed Applications should reach the given address by email or post not later than November 13, 2011.
ANNOUNCEMENT OF AWARDS
The Awards will be announced at Charkha’s Founders Day function in New Delhi on December 07, 2011. The Awardees will be invited to receive the Awards and their costs will be reimbursed as per Charkha’s rules.
FOR FURTHER DETAILS, PLEASE CONTACT
Chetna Verma Anshu Meshack
0-8860844210 0-9899236979
Office: 0124-4079082, 4072638
ABOUT CHARKHA
Charkha believes that development can be sustainable only when the voices of local communities, particularly the disadvantaged, reach the policy makers and implementing bodies. Media can play a crucial role here: Charkha highlights the perspectives of the people through the mainstream print media through its Trilingual Feature Service in English, Hindi and Urdu, in several states across India.
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दुनिया का सबसे सस्ता लैपटॉप और हमारी शिक्षा व्यवस्था
आजकल हमारा देश पूरी दुनिया में सस्ता लैपटॉप लांच करने की वजह से सुर्खिंयां बटोर रहा है। 5 अक्टूबर को मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने छात्रों के लिए सबसे सस्ता लैपटॉप ‘आकाश’ लांच किया। इसे कुछ साल पहले भी भारत ने दुनिया की सबसे सस्ती कार ‘नैनो’ प्रस्तुत कर विश्व को हैरत में डाल दिया था और अब विज्ञान और टेक्नॉलाजी में अपने बढ़ते कदम की तरफ समुचे विश्व का ध्यान आकर्शित करने में सफलता पाई है। यही कारण है कि न चाहते हुए भी दुनिया को भारत की सफलताओं के कसीदे पढ़ने पड़ रहे हैं। इससे बेहतर उदाहरण और क्या हो सकता है कि 65 वर्ष पूर्व जिस ब्रिटेन ने हमें 200 साल तक अपना गुलाम बनाए रखा आज उसी देश के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन विश्व को आर्थिक मंदी से बचने के लिए भारत के आर्थिक नीति को अपनाने की सलाह दे रहे हैं। अपने नागरिकों से संबोधन में भारत का जिक्र करते हुए कहा कि इस वर्श 2008 से भी ज्यादा भंयकर आर्थिक मंदी का सामना करना पड़ेगा लेकिन इसके बावजूद भारत के आर्थिक विकास में कोई फर्क नहीं पड़ेगा। यदि आप को विश्वास नहीं होता है तो आप भारत भ्रमण करें और देखें कि वहां के नागरिकों में कितना जोश है। उनमें आगे बढ़ने और विकास करने का कितना जज्बा है। वास्तव में यह बात हमारे देश, इसके नागरिकों और रहनुमाओं के लिए विश्व के द्वारा उसकी मेहनत को सलाम है। जो परोक्ष रूप से ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के माध्यम से स्वीकार की गई है।
‘आकाश’ आईआईटी राजस्थान और मंत्रालय के राष्ट्रीय सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी शिक्षा मिशन द्वारा संयुक्त रूप से तैयार किया गया है। सात इंच के इस टच स्क्रिन लैपटॉप में दो जीबी मेमोरी कार्ड उपलब्ध है जबकि 32 जीबी के बाहरी हार्ड ड्राइव से जोड़ा जा सकता है। विशेष बात यह है कि तीन घंटे बैटरी से चलने वाला यह लैपटॉप सौर उर्जा से भी चल सकता है। सरकार इस पर पचास फीसदी सब्सिडी देगी तथा यह छात्रों को 1100 रूपए में उपलब्ध होगा। प्रत्येक राज्य को प्रथम चरण में 3300 लैपटॉप मुहैया कराए जाएंगे। लांच के साथ ही सरकार ने इसे कंप्यूटर बनाने वाली कंपनियों को इसे बनाने और बेचने का अधिकार देने की बात कहकर और भी सस्ता करने का इशारा दे दिया है। इस अवसर पर कपिल सिब्बल ने देश के लिए इसे मील का पत्थर बताते हुए आशा व्यक्त की कि यह लैपटॉप न सिर्फ भारत बल्कि विष्व भर के छात्रों के लिए भी बहुमुल्य साबित होगा। कपिल सिब्बल द्वारा इस लैपटॉप को भारत के अलावा दूसरे देशों के छात्रों के लिए भी उपलब्ध करवाने की मंशा सराहनीय है। इससे एक तरफ जहां भारतीय छात्रों की प्रतिभा निखर कर सामने आएगी वहीं सांइस और टेक्नॉलाजी के क्षेत्र में भी भारत के कामयाबी से विश्व को करीब से जानने का एक और मौका मिलेगा।
परंतु मैं पूरे आदर के साथ उन भारतीय छात्रों और बेरोजगार प्रशिक्षित शिक्षकों की तरफ से एक सवाल माननीय मंत्री जी से करना चाहता हूं कि छात्रों को सांइस और टेक्नलॉजी से जोड़ने पर आप जितनी प्राथमिकता दे रहे हैं कभी देश भर में लाखों की संख्या में वर्षों से खाली पड़े स्कूली शिक्षकों के पद को भरने के लिए आप इतने ही गंभीर क्यूं नहीं हैं? जबकि हजारों की संख्या में बीएड उम्मीदवार रोजगार की तलाश में कम वेतन पर प्राइवेट स्कूलों और टयूशन पढ़ाने पर मजबूर हैं। दूसरी तरफ देश में हजारों की संख्या में ऐसे बच्चे भी हैं जिन्होंने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा है। कई ऐसे बच्चे भी हैं जिनके अंदर प्रतिभा उन बच्चों से कहीं ज्यादा हैं जो महंगी फीस देकर नामी-गिरामी स्कूलों में पढ़ रहे हैं और वह सिर्फ इसलिए वंचित हैं क्योंकि उनके अभिभावक के पास उन स्कूलों में फीस भरने के लायक पैसे नहीं होते हैं। ऐसे बच्चों की प्रतिभा को बचाने के लिए आप के पास क्या प्लान है? फीस के रूप में एक मोटी रकम वसूलने वाले स्कूल जब हाईकोर्ट की फटकार के बावजूद गरीब बच्चों को दाखिला देने से साफ इंकार कर जाते हैं तब आपका सभी को समान शिक्षा नीति का फार्मुला कहां फिट होता है? एक देश के अंदर दो तरह की शिक्षा प्रणाली पर कभी आपका मंत्रालय क्यूं नहीं गंभीरता से विचार कर पाता है? क्या शिक्षा का अधिकार बिल पारित करवा लेने भर से ही जिम्मेदारी पूरी हो जाती है? ग्रामीण भारत की शिक्षा व्यवस्था पर चर्चा तो बहुत दूर की बात है मैं सिर्फ राजधानी दिल्ली की ही बात करूं तो पुरानी दिल्ली में सरकार द्वारा संचालित ऐसे कई उर्दू स्कूल मिल जाएंगे जहां उर्दू शिक्षकों का पद वर्षों से खाली पड़ा है जबकि उन स्कूलों में ऐसे प्रिंसिपलों की नियुक्ति है जो गैर उर्दू क्षेत्र से आते है।
बात सिर्फ शिक्षकों के पद की नहीं है बल्कि कई ऐसे छात्रों के उदाहरण भी हैं जिन्हें स्कूल और कॉलेज स्तर पर अपनी प्रतिभा को निखारने का उचित मंच नहीं मिल पाता है। हाल ही में मुझे बिहार के बाढ़ग्रस्त क्षेत्र दरभंगा के एक गर्ल्स कॉलेज जाने का अवसर प्राप्त हुआ जहां छात्राओं से मुलाकात के बाद यह महसूस किया कि उनकी प्रतिभा उनके अंदर घुट कर सिर्फ इसलिए रह जाती है क्योंकि उन्हें अवसर नहीं मिल पाता है। एक छात्रा ने बताया कि उसे पेंटर बनने का बहुत शौक था और वह इसी में अपना कैरियर बनाना चाहती थी परंतु कॉलेज स्तर पर न तो फाइन आटर्स की सुविधा और न ही पारिवारिक बंदिशों के कारण वह अन्य लड़कियों की तरह दिल्ली जाकर इस क्षेत्र में कैरियर बना सकती है। उस छात्रा ने मुझसे प्रष्न किया कि क्या एक छोटे से शहर में रहने के कारण मुझे छोटे सपने देखने चाहिए? सिर्फ डाक्टर और इंजीनियर बनना ही हर किसी के जिंदगी का मकसद तो नहीं हो सकता है। मैंने महसूस किया कि आज उस छोटे से शहर के बच्चे महानगरों में रहने वाले बच्चों की तरह डॉक्टर और इंजीनियर के अलावा फैशन डिजाइनर, गायक, पेंटर और कलाकार जैसे क्षेत्र में अपना कैरियर बनना चाहते हैं। लेकिन वहां के कॉलेजों में इस तरह के कोई कोर्स होते ही नहीं हैं।
माननीय मंत्री जी भारत सहित सारी दुनिया के छात्रों को सस्ता लैपटॉप मुहैया करवाने की आपकी सोच काबिलेतारीफ है। लेकिन उन बच्चों और बेरोजगार प्रशिक्षित शिक्षकों का क्या कसूर है कि आपको उनकी समस्या गंभीर नहीं लगती है? कहीं ऐसा न हो कि उनके सपने पूरे होने से पहले टूट कर बिखर जाएं। जरूरत है इस बात पर गंभीरता से विचार करने का, कि देश में शिक्षा की इतनी गहरी होती खाई को किस तरह पाटा जाए। शिक्षकों की कमी को पूरा किए बगैर छात्रों को सांइस और टेक्नलॉजी से जोड़ देना ही उनके बेहतर शिक्षा का विकल्प नहीं हो सकता है और न ही दरभंगा जैसे छोटे शहरों में सीमित कैरियर के कारण अपने सपनों को बिखरते देखने वाले छात्रों को नजरअंदाज कर उन्नत शिक्षा का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है। (चरखा फीचर्स)