Tuesday, January 27, 2015
विशेष आलेख : महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाता गैर सरकारी संगठन
Edited By Rajneesh K Jha on शनिवार, 24 जनवरी 2015
मैडम आप पिछली सीट पर बैठ जाएं, इस सीट पर अपने पति को बैठने दें। यह शब्द उस ड्राइवर के थे, जिसकी गाड़ी में 55 वर्षीय सुशीला ओझा सवार थीं, जो राजस्थान में बीकानेर के एक कॉलेज में अंग्रेजी की व्याख्याता हैं। सुशीला बीते दिनों को याद करते हुए बताती हैं कि ‘‘जब मैं और मेरे पति अरविंद ओझा बीकानेर से सौ किलोमीटर दूर बज्जू के लिए एक कार से रवाना हुए तो मेरे पति ने मुझे ड्राइवर के बराबर वाली सीट पर बैठने को कहा, यह बात ड्राइवर को बहुत बुरी लगी परंतु उस समय उसने कुछ नहीं कहा लेकिन जैसे ही हम बीकानेर से आगे बढ़े तो उसका धैर्य जवाब दे गया और उसने मेरे पति से कहा कि उन्हें (सुशीला) पीछे वाली सीट पर बैठाइए और खुद आगे आ जाइये नहीं तो मैं गाड़ी नहीं चलाऊंगा।’’ सुशीला मुस्कुराते हुए कहती हैं कि ‘‘वास्तव में ड्राइवर को इस बात का डर था कि उसके जान पहचान के लोग इस बात के लिए उसका मज़ाक उड़ाएंगे कि उसने एक महिला को इतना सम्मान दिया। यह बात 80 के दशक की है जब राजस्थान में महिलाओं को इस लायक़ नहीं समझा जाता था कि वह भी पुरुषों के बराबर बैठें। इसे आप महिलाओं के प्रति उनका सम्मान समझे या फिर कुछ और!’’
प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता और उर्मुल ट्रस्ट के संस्थापकों में एक अरविंद ओझा कहते हैं कि ‘‘जब हम लोगों ने राजस्थान के बीकानेर में अपना काम शुरू किया था तो हमें इतनी भी अनुमति नहीं थी कि हम गावों में प्रवेश करें। पुराने दिनों को याद करते हुए वह बताते हैं कि जब कभी हम किसी गांव में जाते थे तो वहां के रीति-रिवाजों के अनुसार गांव से बाहर बने एक बैठकखाने में रुकते थे, जहां खाने पीने से लेकर सभी सुविधाएं मौजूद होती थीं, लेकिन बाहर से आने वालों अतिथियों को गांव में प्रवेश की अनुमति नहीं होती थी। परिस्थिति यह थी कि स्वयं आतिथेय को भी गांव से बाहर आकर अतिथि का स्वागत सत्कार करना होता था और वहां से उन्हें विदा कर दिया जाता था। मैं इसी रीतिनुसार अपने सामाजिक कार्य को अंजाम देता रहा। जिसमें महिलाओं के छुपे हुनर जैसे कढ़ाई और सिलाई कटाई को निखार कर और अकुषल लोगों के लिए पशुएं उपलब्ध करवाकर उनकी आर्थिक स्थिति को समृद्ध बनाने का प्रयास करता रहा।’’ धीरे धीरे परस्थिति बदलने लगी और गांव वालों को हमारे काम का उद्देश्य समझ में आने लगा। अब परिस्थिति यह है कि जब हम किसी गांव में जाते हैं तो हमें महिलाएं अपने घरों में सम्मानपूर्वक बैठाती हैं और उनके पति शर्बत और चाय से हमारा स्वागत करते हैं।
उर्मुल सीमांत से जुड़ी 63 वर्षीय पुष्पा कहती हैं कि ‘‘जब शुरू में हम लोग महिला एवं बच्चों के स्वास्थ पर काम करते थे तो लोग हमें गालियां दिया करते थे। यहां तक कि हमारे रिश्तेदार भी हमें बुरा भला कहते थे, परन्तु मैं अपने ससुर की जितनी प्रशंसा करूं वह कम है। उन्होंने हमेशा मुझे प्रोत्साहित करते हुए सभी स्तरों पर मेरी मदद की।’’ वह अक्सर कहा करते थे कि ‘‘बेटी तुम्हे जो समझ में आये करो, मगर अपने पिता और मेरे सम्मान का ख्याल हमेषा रखना ।’’ 80 की दहाई में लोगों ने यहां गाड़ी तक नहीं देखी थी। हमारे संगठन में एकमात्र एम्बुलेंस हुआ करती थी। जब हम लोग गांव में जाते थे तो लोग हमें देखकर भाग जाया करते थे। कारण जानने पर मालूम हुआ कि इन्हें इस बात का डर था कि हम यहां के पुरुषों की नसबंदी कर देंगे।’’ बीती बातों को याद करते हुए उन्होंने यह भी बताया कि ‘‘एक बार हम लोग अपने काम से वापस लौट रहे थे कि बीकानेर के कोलायत ब्लाक के गांव भलोरी में एक व्यक्ति सड़क के किनारे अपनी पगड़ी उतार कर और हाथ जोड़कर हमसे मदद की गुहार लगा रहा था। हम लोगों ने तुरंत गाड़ी रोक दी। कारण जानने पर पता चला की उसकी गर्भवती बेटी प्रसव पीड़ा से गुज़र रही है। वह हमसे निवेदन करने लगा कि अपनी गाड़ी से हम उसकी बेटी को किसी डॉक्टर के पास ले जाएं। हमने उसे दिलासा दिलाया कि घबराने की आवश्यकता नहीं है हमारे पास न केवल प्रसव कराने के सभी साधन उपलब्ध हैं बल्कि डाक्टर भी मौजूद है और फिर उसके घर जाकर हमने बड़ी आसानी से उसकी बेटी का प्रसव कराया।‘‘ वह कुछ और घटनाओं का उल्लेख करते हुए बताती हैं कि ‘‘पाकिस्तान के थार वाले हिस्से से 1971 में कुछ महिलाएं आई थीं। यह महिलाएं कढ़ाई के नाम में काफी निपुण थीं। उनकी इस कला को हम लोगों ने न सिर्फ जिंदा किया बल्कि इसके माध्यम से हमने उन्हें आर्थिक लाभ भी पहुंचाया। आज करीब एक हज़ार महिलाएं इस कला के साथ हमारे संगठन से जुडी हुई हैं। ज्ञात हो कि खुद पुष्पा बांग्लादेश और दक्षिण अफ्रीका समेत कई देशों का दौरा कर चुकी हैं। 1971 में पाकिस्तान के सिंध से आईं पारो बाई कहती हैं कि ‘‘मैं बारह वर्ष की थी जब हमारे परिवार वालों ने सुना कि हमारे लिए भारत जाने का विकल्प खुला है। हम लोग उबलता हुआ दूध चूल्हे पर छोड़ कर भारत जाने वाले काफिले के साथ चल पड़े। यहाँ आकर राजस्थान के बाड़मेर में दस साल रहे। इसके बाद सरकार ने विस्थापित सभी परिवारों को बीकानेर के सीमावर्ती क्षेत्र में पच्चीस बीघा रेतीली ज़मीन देकर बसाया। यहाँ उर्मुल वालों ने हमें हमारी कढ़ाई की कला के माध्यम से हमें इतना आत्मनिर्भर बना दिया कि मैं इस वर्ष पंचायत चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही थी परन्तु राज्य सरकार की ओर से आठवीं पास की शर्त ने मेरे इस सपने को तोड़ दिया। वह एक जागरूक नागरिक की तरह इसे मौलिक अधिकार का हनन मानती हैं।
बीकानेर से करीब 180 किलोमीटर दूर डोडी गांव की रहने वाली भंवरी बाई कहती हैं कि ‘‘हम लोग पाकिस्तान के मीरपुर ख़ास संदा से आये थे, हमें खाने के भी लाले पड़ जाते थे, लेकिन जब से परंपरागत कढ़ाई के काम से जुड़ी हंू तबसे हमारी जि़दगी हर तरह से समृद्ध हो गई है। हमारे बच्चे न केवल अब स्कूल जाते हैं बल्कि मेरी बेटी बीएड करके पंचायत चुनाव में खड़ी भी हुई है जबकि मेरा बेटा इंजीनियरिंग कर रहा है। हम गांव के लोग रंगसूत्र नामी एक कंपनी के शेयर होल्डर भी हैं।’’ वह सामाजिक परिवर्तन के संबंध में बताती हैं कि पहले हम लोग घरों के अंदर कैद रहते थे, विशेषकर बहुओं का जीवन नारकीय था लेकिन अब सब कुछ बदल गया है। वह हंसते हुए कहती हैं कि अब मेरे लिए मेरी सास भी चाय बनाती हैं। लोगों की इस बदलती सोच के पीछे उर्मुल का सबसे बड़ा योगदान है। ज्ञात हो कि उर्मुल की स्थापना 1972 में अमूल की तर्ज पर की गई थी। 1985 में यहां के किसानों के हितों को ध्यान में रखते हुए उर्मुल ट्रस्ट के रूप में पंजीकृत कराया गया। आज इस ट्रस्ट की कई शाखाएं हैं जैसे उर्मुल सेतु, उर्मुल मरूस्थली बुनकर विकास समिति, उर्मुल सीमांत इत्यादि। जो राजस्थान के विभिन्न जि़लों में अपने अपने स्तर पर महिलाओं को न केवल जागरूक कर रही हैं बल्कि उन्हें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाकर समाज में गर्व से जीने की प्रेरणा भी दे रही हैं।
मो. अनीसुर्रहमान खान
Monday, January 12, 2015
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